चीन और कोरिया के रेशमी धागे पर निर्भर हुए देश के बुनकर, पिछड़ता जा रहा सिल्क सिटी भागलपुर में कारोबार

भागलपुर: भागलपुर को रेशमी शहर का दर्जा प्राप्त होने में परंंपरागत हुनरमंद बुनकरों का अहम योगदान रहा है। लेकिन बुनकरों के पास कार्यशील पूंजी, कच्चे माल, संसाधन व बाजार आदि के घोर अभाव के कारण वे उत्तरोत्तर विकास करने के बजाय पिछड़ते चले जा रहे हैं। इससे इस उद्योग का अपेक्षित विकास नहीं हो पा रहा है। भागलपुर में मुख्य रूप से तसर, मलवरी, मूगा, मटका (मोटा तसर वस्त्र)के नफीस वस्त्र तैयार होते थे।

इन वस्त्रों पर नक्काशीदारी किए जाने पर उनका मूल्य दुगुना बढ़ जाता था। बाजार में उनकी खासी मांग भी थी। इसी विशेषता की वजह से यह रेशमी शहर के रूप में प्रसिद्ध हुआ। लेकिन रेशम उद्योग का अहम हिस्सा कच्चा माल (धागा)व बाजार पूंजीपतियों के हाथों में चले जाने से उन्होंने उनके मनमाने दाम बढ़ाने व तैयार माल कम दर पर खरीदना शुरू कर दिया। इससे बुनकरों को कम बचत होने लगी।

भागलपुर के कई निर्यातकों ने अपना उत्पादन केंद्र भागलपुर में रखते हुए मुख्य कार्यालय मुंबई, कोलकाता, बेंगलुरु आदि महानगरों में खोल लिए। इससे बुनकरों से उनका सीधा संपर्क भंग होने लगा। इन सब कारणों से शनै शनै इन वस्त्रों की गुणवत्ता में भी कमी आने लगी। इसका यहां के सिल्क उद्योग की स्थिति पर विपरीत असर पड़ा।

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ऐसे समय में कर्नाटक ने जहां मलवरी व असोम ने मूंगा से तैयार कपड़ों को अपनी विशेषता बनाई, वहीं विशुद्ध तसर, मलवरी व मटका के नफीस वस्त्रों का उत्पादन करने वाला भागलपुर इससे नीचे गिर कर सूती, लीलन व रेशम के विभिन्न प्रकार के धागों से फर्निसिंग व ड्रेस मेटेरियल तैयार करने में विवश हो गया।

दरअसल, जिले में 80 हजार से अधिक पावरलूम व हैंडलूम पर करीब लाख बुनकर सिल्क उद्योग से जुड़े हैं। ग्लोबल मार्केटिंग के इस दौर में चीन व अन्य देशों द्वारा सस्ते रेशमी वस्त्र की आपूर्ति किए जाने से भागलपुरी देसी रेशमी कपड़े उनके मुकाबले महंगे पड़ने लगे। इसकी वजह से भी प्रतिद्वंद्विता की दौड़ में यहां का व्यापार प्रभावित हुआ।

रेशमी धागा प्राप्त करने वाले कोकून की कमी के कारण यहां के बुनकर चीन और कोरिया के धागे पर निर्भर हो गए। महंगे धागों की खरीदारी कर कपड़ा तैयार करना उनकी मजबूरी हो गई है। विदेशी रेशमी धाग हैंडलूम के साथ पावरलूम पर चलते थे। जबकि देसी रेशमी धागे सिर्फ हैंडलूम पर ही चलते थे। पावरलूम पर वे टूट जाते थे। इससे बुनकरों के बीच महंगे देसी सिल्क कपड़े की मांग घटने लगी। विदेशी बाजार की कीमत के मुकाबले में खरा उतरने के लिए मिलावट का दौर शुरू हुआ।

बुनकरों तक नहीं पहुंची योजना :- सरकार की ओर से भी रेशम बुनकरों को समय पर कंट्रोल दर पर रेशमी धागे उपलब्ध कराने पर ध्यान नहीं दिया गया। शहर के अलीगंज और सबौर के बहादुरपुर स्थित बिहार स्पन सिल्क मिल से भी बुनकरों को नियंत्रित दर पर रेशमी व सूती धागे मिलते थे। लेकिन बाद में उद्योग विभाग द्वारा उसे बंद कर दिए जाने से बुनकारों को यह वहां से कच्चा माल मिलना बंद हो गया। बुनकर अब कच्चे माल यानि धागे के लिए बंगलुरु और कोलकाता के बाजार पर निर्भर हैंं। इससे धागे की लागत बढ़ गई है।

सरकार की ओर से बुनकरों को यार्न बैंक का लाभ दिलाने के लिए ढाई हजार बुनकरों को धागा कार्ड दिया गया, लेकिन अबतक यह बैंक नहीं खुल पाया है। कच्चे माल महंगी दर पर मिलने से बुनकरों को तैयार कपड़ों की अच्छी कीमत नहीं मिल पाती है। बुनकरों को मुद्रा लोन और कोकून बैंक का भी फायदा नहीं मिला। इन सब कारणों से अधिकांश बुनकर लीनन (सूती) वस्त्र तैयार करने में जुड़ गए।

भागलपुरी वस्त्र उद्योग के पिछड़ने के अन्य कारण :-भागलपुरी वस्त्र उद्योग के पिछडऩे के अन्य कारणों में वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग व सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन न किया जाना भी है। आज भी महिलाएं कोकून से हाथ से रेशमी धागे तैयार करती हैं।

इससे इसका उत्पादन कम होने के साथ वे महंगे होते हैं। इसी तरह बुनकरों को बाजार उपलब्ध कराने के लिए केंद्र सरकार ने नौ करोड़ रुपये उपलब्ध कराए थे। लेकिन स्थानीय प्रशासन द्वारा भूखंड उपलब्ध नहीं करा पाने के कारण उसकी राशि लौट गई। उसके चालू होने पर बुनकरों के बाजार की समस्या का निदान होता और वे बिचौलिए से मुक्त होते।

मेगा क्लस्टर योजना का फायदा नहीं :- बुनकरों के उत्थान के लिए केंद्र सरकार ने मेगा क्लस्टर दिया है। उसमें बांका के तीन और भागलपुर के सात क्लस्टर शामिल थे। यहां प्रशिक्षण की व्यवस्था है, लेकिन हबीबपुर संघ कार्यालय में संचालित किया जा रहा है। इसमें डिजाइन

स्टूडियो का निर्माण आयडा ने किया है। यहां प्रशिक्षण का ठोस इंतजाम नहीं है। वहीं सामान्य सुविधा केंद्र का कार्य अब तक शुरू नहीं हुआ।

क्षेत्रीय हस्तकरघा बुनकर सहयोग संघ के पूर्व चेयरमैन इबररार अंसारी ने कहा,  ‘हस्तकरघा हमारी विरासत और संस्कृति है। इसकी मांग विदेशों तक है। टेक्सटाइल में सबसे अधिक योगदान हस्तकरघा का है। सरकार अनुदान देना चाहती है, पर उसका कुछ हिस्सा ही बुनकरों तक पहुंच पाता है। धागे की कीमतों में उतार-चढ़ाव व कमी को पूरा करने के लिए यार्न बैंक नहीं खुल पाया है।

बाजार की कमी और कम मजदूरी के कारण हस्तकरघों की संख्या घटती जा रही है। क्लस्टर में बुनकरों को स्वास्थ्य विभाग द्वारा सतरंगी चादर की बुनाई का कार्य भी नही मिल रहा। सरकार को बेहतर बाजार उपलब्ध कराना होगा। कार्य एजेंसी सरकार के एजेंडे पर कार्य नहीं कर रही है। इससे बुनकर अपने धंधे को छोड़ पलायन कर रहे हैं।’