पटना । किसी भी देश की रीढ़ युवा होते हैं और जब ये युवा आंदोलित होते हैं तो सत्ता पलटने में देर नहीं लगती। रेलवे भर्ती प्रक्रिया से असंतुष्ट बिहार के अभ्यर्थियों का रेल पटरियों पर निकला आक्रोश खतरे की घंटी है। भले ही सुधार का आश्वासन दे इसे शांत करने की कोशिश शुरू हो गई हो, लेकिन यह संकेत जरूर मिल गया है कि अब बेरोजगारी केवल चुनावी जुमला भर नहीं रहने वाली। अब इसका निदान जरूरी हो गया है क्योंकि आंखों में सपने लिए एक अदद नौकरी को भटक रहे युवाओं का गुस्सा तख्ता पलट करने में सक्षम है। तीन दिन बिहार के विभिन्न जिलों में दिखे इस आक्रोश का ही परिणाम है कि चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, इन युवाओं के साथ खड़ा हो गया है और रेलवे को भी अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने पर बाध्य होना पड़ा है।
महंगाई और बेरोजगारी ये दो ऐसे सवाल हैं जिन्हें अब नजरअंदाज करना राजनीतिक दलों के लिए मुश्किल होगा। बिहार की घटना तो एक उदाहरण भर है, जिसने साबित कर दिया कि केवल आश्वासन देकर उन्हें नहीं बहलाया जा सकता। सभी को याद होगा कि मार्च 1974 में बिहार से उपजे छात्र आंदोलन ने ही देश की सत्ता को पलट दिया था। इसी शक्ति को अपने पाले में करने के लिए पिछले विधानसभा चुनाव में राजद ने दस लाख नौकरी देने का वादा किया था। तेजस्वी के इस दांव का लाभ भी उनको मिला और उनकी सभाओं में युवाओं की भीड़ भी उमड़ी। एक के बाद एक चरण में पिछड़ती एनडीए ने आखिरकार लालू राज का भय दिखा इस मुद्दे को कुंद कर सत्ता हथिया ली थी। एनडीए ने भी 10 लाख नौकरी की जगह 20 लाख रोजगार का वादा किया था। लेकिन उस दिशा में अभी तक प्रगति दिखाई नहीं दे रही।
युवाओं का आक्रोश यूं ही नहीं है। लंबे इंतजार के बाद रिक्तियां निकलने और बाद में उसमें संशोधन होने से यह आक्रोश उमड़ा है। वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव से पहले रेलवे ने नान टेक्नीकल पापुलर कैटेगरी (एनटीपीसी) में पांच वर्गो के लिए 35,281 रिक्तियां निकाली थीं। जिसमें प्रारंभिक परीक्षा (कंप्यूटर बेस्ड टेस्ट 1) के बाद प्रत्येक पद पर 20 अभ्यर्थियों का चयन कर मुख्य परीक्षा कराई जानी थी। दो साल जब परीक्षा नहीं हुई तो आंदोलन हुआ और 2021 में परीक्षा ली गई। लेकिन 14 जनवरी 2022 को जब परिणाम आया तो कई अभ्यर्थी ऐसे थे जो एक से अधिक पदों पर चयनित हो गए थे। इस अनुसार सात लाख की संख्या तो पूरी हो गई, लेकिन तमाम छात्र रह गए। रेलवे इसे सही ठहरा रहा है, जबकि छात्र एक से अधिक पदों पर एक के चयन को गलत करार दे रहे हैं। इससे आक्रोश सुलग गया। इसी बीच ग्रुप डी के लिए 2019 में ही घोषित एक लाख तीन हजार पदों के लिए भी रिक्तियां निकली थीं। जिसमें एक परीक्षा के बाद नौकरी मिलनी थी, लेकिन तीन वर्षो के इंतजार के बाद 19 जनवरी 2022 को नोटिफिकेशन जारी हुआ कि अब दो स्तर पर परीक्षा होगी। तीन वर्ष इंतजार के बाद इस बदलाव ने आग में घी का काम किया और आंदोलन भड़क गया। छात्रों के आक्रोश को देख अब रेलवे ने परीक्षाएं स्थगित कर दी हैं और एक कमेटी का गठन किया है, जो छात्रों की आपत्तियों को लेकर अपनी रिपोर्ट देगी।
भले ही यह संशोधन करके आक्रोश को थामने की कोशिश की गई हो, लेकिन नियुक्तियों के लिए समय पर परीक्षा न होना, वर्षो नतीजा न निकलना एक विडंबना ही है, क्योंकि आर्थिक अभाव के बीच तैयारी करने वाले इन युवाओं का श्रम व मुश्किल से कमाए गए अभिभावकों के धन का नुकसान होता है। यह आंदोलन इन्हीं कारणों से उपजा और उनकी इस ताकत को देखते हुए ही सभी विपक्षी दल अपने लाभ के लिए शुक्रवार को बिहार बंद कराने निकले। लेकिन यह उस युवा शक्ति का संयम ही था कि उसने अपने आंदोलन का राजनीतिकरण नहीं होने दिया। केंद्र से मिले आश्वासन के बाद यह शक्ति शांत हो गई। राजनीतिक दलों को बंद के लिए इनका समर्थन नहीं मिल पाया। इस घटना के बाद बेरोजगारी में महंगाई के तड़के से राजनीतिक दलों को भी सबक लेना होगा कि वे इसे केवल वोटबैंक समझने की भूल न करें अन्यथा कभी भी बड़ा विस्फोट हो सकता है।
[स्थानीय संपादक, बिहार]