जिले में माननीय की एक सीट की लड़ाई रोचक हो गई है। चुनाव की अधिसूचना जारी होने से पहले बात-बात पर ’47’ का जिक्र आ जाता था, मगर मैदान में उतरने के बाद लड़ाई चालाकी पर उतर आई है। एक-दूसरे को मात देने के लिए एक नाम के कई लोगों को मैदान में उतार दिया है। दोनों का यह सोच है कि इसी बहाने कुछ वोट इधर से उधर हो जाएंगे।
मामला करीबी मुकाबला का होगा तो बाजी पलट भी सकती है। चुनाव में ऐसी चालाकी ने शहरवासियों के मन में सवाल जरूर उठा दिया है। वह यह कि हम ऐसे पंचायत जनप्रतिनिधियों को क्यों चुन रहे जिन्हें सही से वोट डालना भी नहीं आता। इसका ही फायदा राजनीति के तथाकथित महारथी उठाते हैं। थोड़ा सा चारा फेंककर छह वर्षों के लिए अपनी मनमर्जी चलाते हैं। सवाल यह भी उठ रहा कि महारथियों को ऐसी चालाकी करने की नौबत क्यों आई।
साहब को गुस्सा बहुत आता है : कुछ साल पहले ही साहब सरकारी सेवा में आए हैं। प्रशासन के इस पदाधिकारी को कूड़ा-कचरा वाले विभाग में प्रतिनियुक्त कर दिया गया। गाना भी अच्छा गाते हैं, मगर गुस्साते भी बहुत हैं। कोरोना काल में जांच का जिम्मा मिला था तो एक दुकानदार से हाथापाई का मामला चर्चा में रहा। मामला किसी तरह सुलझाया गया। अब साहब ने पिछले दिनों अपने विभाग के तेल के खेल का ङ्क्षस्टग आपरेशन किया।
गड़बड़ी देखी तो गुस्से में आ गए। बड़े साहब को भी फोन कर दिया। बड़े साहब भी कहां शांत रहने वाले। आपा खो बैठे। पंप के सामने नाला को खोदवा डाला। अब शहरवासियों के गले यह बात नहीं उतर रही कि गड़बड़ी इतने दिनों से चल रही थी पकड़ में क्यों नहीं आई। शिकायत नहीं जाती तो शायद गड़बड़ी अब भी पकड़ में नहीं आती। वहीं तेल का खेल एक ही विभाग में नहीं चल रहा। बाकी का भी ङ्क्षस्टग हो तो…।
नैया है बीच मझधार, कौन संभाले पतवार : युवा नेता नाव से जुड़े समाज को आगे बढ़ाने की बात कहते हुए राजनीति में आए। समाज का साथ मिला तो माननीय भी बन गए, मगर मन स्थिर नहीं रहा। लगातार दो नाव की सवारी करनी चाही। नतीजा उनकी ही नाव मझधार में फंस गई है। नैया की पतवार खेने वाले नहीं दिख रहे। जिनके साथ नाव की सवारी कर रहे थे वे साथ देंगे, इसपर संदेह है।
साथ ही उनके ही समाज के एक माननीय लगातार उनपर निशाना साध रहे। एक निशान लग भी गया। उनके कोटे की एक सीट पर साथी दल ने ही दावेदारी कर दी। वहीं जिन्हें मैदान में उतारने वाले थे वह भी दूसरा दरवाजा खटखटाने लगे हैं। उन्हें शक है कि सिर्फ सहानुभूति से नैया पार नहीं लगेगी। कोई मजबूत सहारा जरूरी है। अब वह भी नाव का साथ छोड़ दें तो आश्चर्य नहीं।
भवन में या सरकार को लगा रहे चूना : जिले में हर साल सरकारी भवनों का रंग-रोगन किया जाता है। इसमें लाखों खर्च होते हैं। इस काम में एक खासियत है। वह यह कि हर साल भवन के साथ उसके संवेदक तय रहते हैं। कुछ पहले के समय में गांव में चलने वाली यजमानी की तरह। इतने घर मेरा और उतने घर तेरा। सबकुछ फिक्स्ड।
अब भवन के साथ सरकार को तो चूना लगना ही है। विभाग के बारे में तो यही कहा जाता है कि काम पहले दे दिया जाता, टेंडर बात में निकलता। यही नहीं टेंडर निकलता भी है तो यजमानी तय। इस क्षेत्र में कुछ नए लोग आ जाते तो कभी-कभी विरोध भी हो जाता। हंगामे के साथ शिकायत की जाती। उन्हें समझा लिया जाता कि भाई यहां सब ऐसे ही चलता है। नहीं समझने वाले को छोटी-मोटी यजमानी दे दी जाती है। चलिए आप भी लगाइए चूना।