पौराणिक संदर्भों से जुड़ी है अंगभूमि के होलिका-दहन की परंपरा, जानिए कई रोचक जानकारियां

भागलपुर :-  बसंत ऋतु में फाल्गुन मास की पूर्णिमा को हर्ष व उल्लास से मनाए जाने वाले पर्व होली के साथ होलिका दहन तथा हिरण्यकशिपु-वध की पौराणिक कथाएं जुड़ी हैं। अंगभूमि के शिला-खंडों पर भगवान विष्णु के नरसिंह अवतार की प्राचीन मूर्तियों के उत्कीर्ण होने एवं भगवान शिव के त्रिनेत्र की च्वाला से कामदेव मदन के यहां पर भस्मीभूत होने के संदर्भ होने से इस क्षेत्र का नाम ‘अंग’ पडऩे के कारण होली पर्व के अवसर पर यहां के पौराणिक संदर्भ जीवंत हो उठते हैं।

होली मनाने के एक दिन पहले सम्पन्न की जाने वाली होलिका दहन की परंपरा के बारे में पौराणिक कथा है कि होलिका दैत्यराज हिरण्यकशिपु की बहन थी, जिसे यह वरदान प्राप्त था कि वह अग्नि में नहीं जलेगी। इसी तरह हिरण्यकशिपु ने अपने तप से ब्रह्मा को प्रसन्न कर अमरत्व का वरदान प्राप्त कर लिया था, जिसके अहंकार में वह स्वयं को भगवान मान अपने राज्य में विष्णु की पूजा को वर्जित कर दिया था, लेकिन स्वयं उसका पुत्र प्रह्लाद ही भगवान विष्णु का परम भक्त था।

अपने पुत्र प्रह्लाद की विष्णु-भक्ति से क्रोधित हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका से कहा कि वह प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर अग्नि पर बैठे। पर प्रभु की माया से प्रह्लाद का तो बाल भी बांका न हुआ, उल्टे होलिका ही जलकर राख हो गई। तभी से असत्य पर सत्य की विजय के रूप में होलिका दहन की परिपाटी चल पड़ी।

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इस घटना से क्रोधित हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को आग से तपते हुए लोहे के खंभे को गले लगाने के लिये कहा। किंतु अपने भक्त के प्राणों की रक्षा हेतु भगवान विष्णु उस लोहे के खंभे से नरसिंह अवतार में प्रकट हुए और आततायी हिरण्यकशिपु का वध कर दिया।संपदाओं से परिपूर्ण प्राचीन काल में अंगभूमि के नाम से प्रसिद्ध भागलपुर के शिलाखंडों पर उत्कीर्ण नरसिंह भगवान् की तीन नायाब प्राचीन मूर्तियां सैकड़ों वर्ष बीत जाने के बाद भी होलिका दहन और हिरण्यकशिपु-वध की पौराणिक कथाओं की साक्षी देती प्रतीत हो रही हैं।

इस संदर्भ में सबसे पहले चर्चा सुलतानगंज की अजगैबी पहाड़ी पर एक बड़े पाषाण खंड पर उत्कीर्ण नरसिंह प्रतिमा की, जो अजगैबी मंदिर की तरफ जाते समय मार्ग पर एक विशाल शिलाखंड पर उत्कीर्ण है, जो शिल्पकला का एक अनूठा नमूना है जिसकी चर्चा कई पुरा-विशेषज्ञों ने की है। चार भूजाओं वाली इस चतुर्भुज जटामुकुट धारी मूर्ति की बायीं जंघा पर हिरण्यकश्यप निढाल पडा है, जिसकी छाती को अपने दो हाथों से चीरते हुए भगवान नरसिंह दर्शित हैं।

आज पुरा शिल्प का यह उत्कृष्ट नमूना समय के थपेड़ों को झेलते हुए विनष्ट होने के कगार पर है ही, कुछ अति उत्साही ‘भक्त’ इसपर पेंट पोतकर  इसकी ऐतिहासिकता को मिटाने पर उतारू हैं। अंगभूमि की दूसरी महत्वपूर्ण मूर्ति बौंसी (बांका) के मंदार पर्वत पर अवस्थित है।

विदित है कि मंदार क्षेत्र की प्रसिद्धि एक महत्वपूर्ण वैष्णव-स्थल के रूप में है, जहां भगवान विष्णु मंदार मधुसूदन के अवतार में विराजते हैं। मंदार पर्वत पर सीताकुंड के उपर उत्तर दिशा में एक संकीर्ण गुफा में भगवान नरसिंह का मंदिर है, जिसकी चट्टान पर नरसिंह की रौद्र मुद्रा में मूर्ति अंकित है। इस गुफा में विष्णु की एक अन्य मूर्ति के साथ लक्ष्मी और सरस्वती की भी मूर्तियां अंकित हैं।

अंग क्षेत्र में भगवान नरसिंह की तीसरी महत्वपूर्ण प्राचीन मूर्ति शाहकुंड की खेरी पहाड़ी के पीछे एक छोटे से मंदिर में अवस्थित है। घुंघराले बालों वाले जटामुकुट युक्त शंख, चक्र, गदा आदि धारण किये नरसिंह की इस प्रतिमा में हिरण्यकशिपु का चित्रण नहीं किया गया है, इस कारण यह ‘केवल नरसिंह’ के नाम से संबोधित की जाती है। बारीक शिल्पकला से सजी इस आकर्षक मूर्ति की चर्चा कई विद्वानों ने की है। पर आज यह उपेक्षित व असुरक्षित अवस्था में पड़ी हुई है।

कहा जाता है कि भक्त प्रह्लाद के पिता हिरण्यकशिपु का राज अंगक्षेत्र की सीमा पर स्थित पूर्णिया के बनमनखी मे था। ऐसी मान्यता है कि यहीं पर भगवान विष्णु ने भक्त प्रह्लाद के रक्षार्थ नरसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का वध किया था। आज बनमनखी का नरसिंह मंदिर इसकी गवाही देता नजर आ रहा है।

यहां दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि होली के पर्व को ‘बसंत महोत्सव’ या ‘काम महोत्सव’ कहकर संबोधित किया जाता है, जिसके उद्भव के तार भी अंगभूमि से जुड़े हुए हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव ने होली के दिन ही कामदेव मदन को भष्म करने के बाद जीवित किया था। रामायण में वर्णित कथा के अनुसार कामदेव द्वारा भगवान शिव की तपस्या भंग कर देने पर उन्होंने क्रोधित होकर अपना अपना त्रिनेत्र खोल दिया था

जिसकी च्वाला से भयभीत भागते हुए कामदेव ने इसी भूमि पर अपने ‘अंग’ अर्थात शरीर का त्याग किया था, इस कारण इस क्षेत्र का नाम अंग पड़ा है। होली के अवसर पर अंगवासियों की अलमस्ती कामदेव मदन की उन्मुक्तता को मुखर कर देती हैं। -शिव शंकर सिंह पारिजात, पूर्व जनसम्पर्क उपनिदेशक एवं इतिहास के जानकार